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भारत: मानव मल साफ़ करने के काम के लिए बाध्य की गई जाति

स्थानीय अधिकारियों के समर्थन से ‘हाथ से मल उठाने की प्रथा’ आज भी कायम है

(नई दिल्ली): ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज जारी की गई एक नई रिपोर्ट में कहा कि भारत सरकार को “हाथ से मल उठाने की प्रथा” - नीची जाति का माने जाने वाले समुदायों द्वारा मानव मल की सफाई - को खत्म करने के लिए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि स्थानीय अधिकारी इस भेदभावपूर्ण प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए कानूनों को लागू करते हैं। सरकार को हाथ से मल उठाने वाले समुदाय के सदस्यों को वैकल्पिक, स्थायी आजीविका ढूँढने में मदद करने के उद्देश्य से बनाए गए मौजूदा कानून को लागू करना चाहिए।

96 पृष्ठों की रिपोर्ट, “मानव मल की सफाई (Cleaning Human Waste): ‘हाथ से मल उठाने की प्रथा (Manual Scavenging),’ जाति, और भारत में भेदभाव(Caste, and Discrimination in India),” हाथ से मल उठाने की मजबूरी को दर्शाता है। पूरे भारत में, “हाथ से मल उठाने वाले कर्मचारियों” के रूप में काम करने वाली जातियाँ रोज मानव मल इकठ्ठा करती हैं, और उन्हें बेंत की टोकरियों में ले जाकर बस्ती के बाहर फेंकती हैं। इस जाति की महिलाएँ आम तौर पर घरों में शुष्क शौचालयों को साफ़ करती हैं, जबकि पुरुष नालियों और सेप्टिक टंकियों की अधिक शारीरिक मेहनत वाली सफाई का काम करते हैं। रिपोर्ट में हाथ से मल उठाने का काम करने वालों को इस काम को छोड़ने पर सामने आने वाली बाधाओं का वर्णन है, जिसमें हिंसा और स्थानीय निवास से निकाले जाने की धमकियों के अलावा, स्थानीय अधिकारियों द्वारा धमकियों, उत्पीड़न और गैरकानूनी तरीके से उनके मेहनताने को रोके रखने जैसी बाधाएं भी शामिल हैं।

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया की निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा,“लोग इसलिए हाथ से मल उठाने वाले कर्मचारियों के रूप में काम करते हैं क्योंकि उनकी जाति से इस भूमिका को पूरा करने की अपेक्षा की जाती है और वे आम तौर पर कोई दूसरा काम ढूँढने में असमर्थ रहते हैं।” उन्होंने कहा, “इस प्रथा को छुआछूत की सबसे बुरी मौजूदा निशानियों में से एक माना जाता है क्योंकि यह सामाजिक कलंक को मजबूती प्रदान करता है कि ये जातियाँ अछूत हैं तथा भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार को बनाए रखता है।”    

2014 में, ह्यूमन राइट्स वॉच ने 135 से अधिक लोगों का इंटरव्यू लिया, जिसमें भारत के गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, और उत्तर प्रदेश राज्यों में वर्तमान में या पहले हाथ से मल उठाने वाले कर्मचारियों के रूप में काम करने वाले 100 से भी ज्यादा लोग शामिल हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में शुष्क शौचालयों को साफ़ करने वाली महिलाओं को अक्सर नकद मेहनताना नहीं मिलता है, इसकी जगह उन्हें एक प्रचलित प्रथा के अनुसार बचा-खुचा भोजन, फसलों की कटाई के दौरान अनाज, त्यौहारों के समय पुराने कपड़े, और मवेशियों को चराने और जलावन इकठ्ठा करने के लिए सामुदायिक और निजी जमीन में प्रवेश करने का अधिकार मिलता है - और ये सब उन घरों की मर्जी पर मिलता है जहाँ वे काम करती हैं। जिन क्षेत्रों में “छुआछूत” की प्रथा अभी भी कायम है वहाँ उनके हाथों में या उनके सामने फेंककर भोजन दिया जाता है।

ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि स्थानीय अधिकारी अक्सर हाथ से मल उठाने वालों के खिलाफ भेदभाव में लिप्त पाए जाते हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच ने ऐसे-ऐसे मामले दर्ज किए हैं जिनमें सरकारी ग्राम परिषदों और नगरपालिकाओं ने खुले मलोत्सर्ग क्षेत्रों को साफ़ करने के लिए जाति के आधार पर कर्मचारियों की भर्ती की है। इस काम को करने वाले लोगों को अपने जीवन के अन्य पहलुओं में भेदभाव का सामना भी करना पड़ता है, जिनमें शिक्षा, सामुदायिक जल स्रोतों, तथा सरकारी आवासन और रोजगार के लाभों तक पहुँच भी शामिल है। ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि पुलिस और अन्य अधिकारी हाथ से मल उठाने वाले कर्मचारियों की शिकायतों पर कार्रवाई करने में असफल रहते हैं जिन्हें हिंसा, बेदखली और अन्य अपराधों की धमकी दी गई है।

मीनाक्षी गांगुली ने कहा “नई भारत सरकार के जाति के आधार पर मल साफ़ करने की प्रथा को समाप्त करने के प्रयास भेदभाव और स्थानीय जटिलता के कारण पटरी से उतर गए हैं,” । उन्होंने कहा, “सरकार को हाथ से मल उठाने की प्रथा पर रोक लगाने के लिए कानून को लागू करने और प्रभावित जाति के समुदायों की मदद करने के बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है।”

ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा, हाथ से मल उठाने का काम करने वाले लोगों के साथ होने वाले अधिकारों का दुरुपयोग पारस्परिक रूप से मजबूत होता जा रहा है, बिना किसी सुरक्षा के बार-बार मानव मल को हाथ से उठाने से लगातार उबकाई और सिरदर्द, श्वसन और त्वचा रोग, रक्ताल्पता, दस्त, उल्टी, पीलिया, ट्रेकोमा, और कार्बन मोनो ऑक्साइड विषाक्तता समेत गंभीर स्वास्थ्य परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। ये हालात व्यापक कुपोषण और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचने में असमर्थता के कारण और बुरे हो सकते हैं।

फ़िलहाल ऐसे किसी व्यापक सरकारी सर्वेक्षण की व्यवस्था नहीं है जो देश में हाथ से मल उठाने की प्रथा के प्रचलन का सटीक विवरण प्रदान कर सके। उचित सर्वेक्षणों के अभाव को स्वीकारते हुए मार्च 2014 में भारतीय सर्वोच्च न्यायलय ने इस बात की पुष्टि की कि  यह बात “बिल्कुल साफ़ है कि हाथ से मल उठाने की प्रथा अभी भी बेरोकटोक जारी है।”

हाथ से मल उठाने की प्रथा क़ानून और संविधान का उल्लंघन करती है।

भारत का संविधान छुआछूत के नाम से जाने जाने वाले जाति आधारित भेदभाव पर रोक लगाता है। नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 किसी को भी हाथ से मल उठाने का काम करने के लिए मजबूर करने पर प्रतिबन्ध लगाता है। 2013 में, भारत की संसद ने हाथ से मल उठाने की प्रथा को गैरकानूनी घोषित करते हुए हाथ से मल उठाने वाले -कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और पुनर्वास अधिनियम (2013 अधिनियम) को लागू किया। 2013 अधिनियम ने इन समुदायों को वैकल्पिक आजीविका और अन्य सहायता प्रदान करके इनके साथ होने वाले अन्याय और अपमान को दूर करने के लिए एक संवैधानिक दायित्व को मान्यता भी दी।

मार्च 2014 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि हाथ से मल उठाने की प्रथा अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानून का उल्लंघन करती है. न्यायालय ने प्रभावी उपाय करने की माँग की। मई में चुनी गई नई भारत सरकार ने भारत के दलित समुदायों की जरूरतों पर ध्यान देने की कसम खाई है, लेकिन हाथ से मल उठाने की प्रथा को समाप्त करने के लिए अभी तक कोई नया कदम नहीं उठाया गया है।

हाथ से मल उठाने का काम छोड़ चुके लोगों के साथ-साथ समुदाय आधारित सिविल सोसाइटी की पहल का समर्थन पाने वाले लोग भी मौजूदा सरकारी कार्यक्रमों से आवास, रोजगार, और सहायता प्राप्त करने में काफी बाधाओं का सामना किए जाने की रिपोर्ट करते हैं। उल्लेखनीय है कि 2013 अधिनियम के तहत पुनर्वास संबंधी उपबंधों को मौजूदा केंद्रीय और राज्य सरकारी योजनाओं के तहत लागू किए जाने के लिए छोड़ दिया गया है - ये कार्यक्रमों के वही सेट हैं जो हाथ से मल उठाने की प्रथा को समाप्त करने में अब तक कामयाब नहीं हुए हैं।

ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा, यह सुनिश्चित करने के लिए कि वित्तीय सहायता, छात्रवृत्ति, आवास, वैकल्पिक आजीविका सहयोग, और अन्य महत्वपूर्ण कानूनी और कार्यक्रम संबंधी सहयोग सहित, 2013 को वर्तमान में चल रही सभी प्रासंगिक योजनाओं का सम्पूर्ण आंकलन और ऑडिट करना चाहिए.  उसके बाद सरकार को 2013 अधिनियम के उपबंधों के अनुसार एक व्यापक कार्यक्रम तैयार करने के लिए हाथ से मल उठाने के काम में लगे समुदायों और सिविल सोसाइटी संगठनों के परामर्श से काम करना चाहिए।

मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “जोर-जबरदस्ती के कारण जाति आधारित रीति-रिवाज अभी भी लोगों को हाथ से मल उठाने के लिए मजबूर कर रहे हैं, और इसके लिए सरकार द्वारा हस्तक्षेप किए जाने की आवश्यकता है,” उन्होंने कहा, “भारत की नई सरकार के पास अधिकारों से वंचित रखने वाली इस बुरी प्रथा को हमेशा के लिए समाप्त करने के साधन हैं और यह उसका दायित्व है।”

रिपोर्ट से चुनिंदा साक्ष्

“पहले दिन जब मैं शौचालय और नाली साफ़ कर रही थी, मेरा पैर फिसल गया और मेरा पैर  पिंडली तक मल में डूब गया। मैं चीख उठी और भाग गई। उसके बाद मैं घर आई और रोती रही। मैं जानती थी कि मेरे लिए सिर्फ यही काम है।” -सोना, भरतपुर शहर, राजस्थान, जून 2013

“मैं 20 घरों के शौचालय साफ़ करती हूँ। वे मुझे रोटी देते हैं। वे मुझे दो से ज्यादा रोटियाँ नहीं देते हैं, लेकिन वे हमें कुछ तो देते हैं। मेरा पति खेत में काम करता है, लेकिन खेत में काम करने का मौका रोज नहीं मिलता। यदि मैं यह काम करती हूँ, तो कम-से-कम हमें कुछ खाने को तो मिलेगा।” -शांति, मैनपुरी जिला, उत्तर प्रदेश, जनवरी 2014

“मैंने कॉमर्स और बैंकिंग की पढ़ाई की, लेकिन मैं नौकरी न ढूंढ सका। पढ़ा-लिखा होने के बावजूद, मुझे ग्राम परिषद ने शौचालय साफ़ करने के काम पर रखा क्योंकि मैं इस समुदाय का हूँ।” - कैलाश पोकरजी कुंदारे, जलगाँव जिला, महाराष्ट्र, मार्च 2014

“हम लोग पंचायत [स्थानीय परिषद] सदस्यों के पास गए और कहा, कृपया हमें कुछ काम दीजिए। उन्होंने हमें जो काम दिया, वह गटर साफ़ करने, सड़कों से मल साफ़ करने, शौचालय साफ़ करने, गाँव को साफ़ करने, और कचरा हटाने का काम था। यह काम हमें हमारी जाति को ध्यान में रखकर दिया गया। वे हमें कोई बेहतर काम नहीं देंगे। कोई ऐसा काम नहीं देंगे जिससे हमें सम्मान मिल सके।” -गोपाल हरिलाल बोहित, जलगाँव जिला, महाराष्ट्र, मार्च 2014

 “उन्होंने हमारे मर्दों को बुलाया और कहा ‘यदि तुम लोगों ने अपनी औरतों को हमारे शौचालयों को साफ़ करने के लिए भेजना शुरू नहीं किया तो हम उनकी पिटाई करेंगे। हम तुम्हारी भी पिटाई करेंगे।’ उन्होंने कहा, ‘हम तुम्हें शांति से जीने नहीं देंगे।’ हम डर गए।” -गंगाश्री, मैनपुरी जिला, उत्तर प्रदेश, जनवरी 2014

“मुझे अपने सिर पर दुपट्टा लेकर काम करना पड़ता था। बारिश के दौरान, मेरे कपड़े मल से भीग जाते थे। वे सूखते नहीं थे। घर बदबू से भर जाता था। मुझे त्वचा रोग होने लगे और मेरे बाल भी झड़ने लगे।” -बादामबाई, नीमुच जिला, मध्य प्रदेश, जनवरी 2014

“मानव मल को हाथ से उठाकर ले जाना एक तरह का रोजगार नहीं बल्कि गुलामी की तरह का ही एक अन्याय है। यह दलितों के खिलाफ भेदभाव के सबसे प्रचलित रूपों में से एक है, और यह उनके मानवाधिकारों के उल्लंघन का केंद्र है।” - आसिफ शेख, राष्ट्रीय गरिमा अभियान के संस्थापक, हाथ से मल उठाने की प्रथा को समाप्त करने के लिए एक जमीनी स्तर का अभियान, मई 2014

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