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भारत के प्रदर्शनकारियों की सुनें, उनपर प्रहार मत करें

नए नागरिकता कानून में मुसलमानों के साथ भेदभाव

नई दिल्ली में विरोध प्रदर्शन के दौरान नारे लगते जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्र, भारत, मंगलवार, 17 दिसंबर, 2019.  © 2019 एपी फोटो/अल्ताफ कादरी
 
भारत में दसियों हजार लोग भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा 12 दिसंबर को अंगीकृत भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून का विरोध कर रहे हैं.
 
इन विरोध प्रदर्शनों की अग्रिम पंक्ति में पूरे भारत के विश्वविद्यालयों के छात्र हैं जो इकट्ठे होकर गीत गा रहे हैं, तख्तियां लहरा रहे हैं और नारे लगा रहे हैं. हो सकता है कि कुछ लोग बसों को जलाने और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने जैसी हिंसा में शामिल रहे हों, लेकिन शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे बहुत से लोग पुलिस की क्रूरता और अत्यधिक बल प्रयोग का शिकार हुए हैं.
 
यह कानून मुस्लिम-बहुल बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से प्रताड़ित होकर भाग रहे सिर्फ गैर-मुस्लिमों को नागरिकता प्रदान करता है, मुस्लिमों को नहीं. यह स्पष्ट तौर पर सरकार की प्रस्तावित राष्ट्रव्यापी नागरिकता सत्यापन प्रक्रिया की पूर्व सूचना है. असल में सत्यापन  प्रक्रिया इस कानून के साथ मिलकर ज्यादातर धर्मों के लोगों के अधिकारों की स्वतः रक्षा करेगी, लेकिन भारत के लगभग 20 करोड़ मुसलमानों के समक्ष भारतीय राष्ट्रीयता साबित करने या राज्यविहीन होने की चुनौती पेश करेगी.
 
प्रदर्शनकारी मानते हैं कि ये नीतियां मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं.
 
सरकार के कई नेता इन चिंताओं को दूर करने, सुधारात्मक कार्रवाई की पेशकश करने, सुरक्षा बलों को संयम बरतने का निर्देश देने और जवाबदेही सुनिश्चित करने के बजाय, प्रदर्शनकारियों को बदनाम करने, फटकारने और धमकी देने में मशगूल हैं.
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “शहरी नक्सलियों” को दोषी ठहराया है - एक ऐसा शब्द जो उन्होंने और उनके समर्थकों ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और असहमति रखने वालों को नीचा दिखाने के लिए पहले से गढ़ रखा है. सरकार की आलोचना करने वाले ऐसे अनेक लोगों को जेल में डाल दिया गया है, उन्हें राजद्रोह, आपराधिक मानहानि या आतंकवाद का मुलजिम बनाया गया है.
 
उनकी यह टिप्पणी कि हिंसक प्रदर्शनकारियों को “उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है,” ने दिल्ली में कई छात्रों को सर्द मौसम में भी अपनी शर्टें उतारकर विरोध करने के लिए उतेजित  किया ताकि यह बताया जा सके कि विरोध प्रदर्शन करने वाले केवल मुस्लिम नहीं है. सोशल मीडिया पर, अन्य नेताओं ने बहिष्करण की राजनीति को जायज़ ठहराने के लिए विरोध प्रदर्शनों का इस्तेमाल किया; एक नेता ने तो कुछ प्रदर्शनकारियों को “कट्टरपंथी इस्लामी” करार दिया.   ये इस तरह के आरोप हैं जो मनमाने ढंग से गिरफ्तारी और आतंकवाद के आरोप का सबब बन सकते हैं. भाजपा के एक मंत्री ने कहा कि पुलिस को सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले किसी भी व्यक्ति को “देखते ही गोली मार देनी” चाहिए.
 
गृह मंत्री अमित शाह ने यह कहकर विरोध को शांत करने का प्रयास किया है कि भारतीय मुसलमानों को “डरने की कोई जरुरत नहीं है.” हालांकि, अतीत में दिए गए उनके ही बयान इन दावों का खंडन करते हैं.
 
वास्तव में, सरकार को प्रदर्शनकारियों से सबक सीखना चाहिए जो असहमति जताने के लिए भारत के संविधान की प्रस्तावना जोर-जोर से पढ़ रहे हैं ताकि यह बताया जा सके कि समानता, गरिमा और धर्मनिरपेक्षता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को मिटाने वाले कानून को ख़त्म किया जाना कितना जरूरी है.

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