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भारत: माओवादियों और सरकार के निशाने पर सामाजिक कार्यकर्ता

दंडित करने की धमकियां, उत्पीड़न और हत्याएँ

(रांची) - भारत में सरकार और माओवादियों द्वारा सामाजिक कार्यकर्ताओं को धमकाया जा रहा है व उन पर हमले किए जा रहे हैं जिसके कारण मध्य और पूर्वी भारत के इलाकों में इन कार्यकर्ताओं की बुनियादी स्वतंत्रता और लोगों को मिलने वाली सहायता खतरे में पड़ गई है. यह बात आज ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा यहां जारी की गई एक रिपोर्ट में कही गई है.

60पृष्ठों की रिपोर्ट ‘‘दोतरफा बन्दूकों के बीच में:भारत में माओवादी संघर्ष के दौरान नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं पर हमले”एक ऐसा दस्तावेज है जिसमें भारत के उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ में कार्यकर्ताओं के विरुद्ध मानवाधिकार हनन के मामले दर्ज किए गए हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच ने अपनी खोज में पाया कि जमीनी स्तर पर विकास कार्यों में मदद देने और मानवाधिकार हनन के मामले उजागर करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता सरकारी सुरक्षा बलों और माओवादियों जिन्हें नक्सलाइट्स के नाम से जाना जाता है, द्वारा हमलों का शिकार हो रहे हैं. माओवादियों द्वारा अक्सर कार्यकर्ताओं को मुखबिर कहा जाता है तथा सरकारी विकास कार्यों को लागू करने के विरुद्ध चेतानियां दी जाती हैं. सुरक्षा बलों द्वारा इन कार्यकर्ताओं से मांग की जाती है कि वे उनके मुखबिरों की तरह काम करें तथा जो कार्यकर्ता ऐसा करने से इन्कार करते है उन पर माओवादी समर्थक होने का आरोप लगाकर उनकी मनमानी गिरफ्तारी की जाती है और उन्हें प्रताड़ित किया जाता है. अधिकारियों द्वारा राजद्रोह कानून का प्रयोग स्वतंत्र अभिव्यक्ति को सीमित करने और सरकार के आलोचकों को जेल में डालने के लिये किया जा रहा है.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने मांग की है कि माओवादियों और सरकारी सुरक्षा बलों द्वारा परेशान किए जाने की कार्रवाइयाँ, हमले तथा अन्य उत्पीन तुरन्त बन्द किया जाए.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली का कहना है कि “स्थानीय समुदायों के मानवाधिकार हनन के मामले उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया जाने के मुद्दे पर माओवादी और सरकार एक समान हैं.”

“लोगों को सहायता पहुंचाने वाले और उनके अधिकरों की रक्षा करने वाले को स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने देना चाहिए तथा उन पर राजनीति से प्रेरित होकर कार्य करने का आरोप इस कारण नहीं लगा दिया जाना चाहिए क्योंकि वे उत्पीड़न की ओर ध्यान आकर्षित कराते हैं”. इस रिपोर्ट में साठ से अधिक ग्रामीणों, कार्यकर्ताओं, पत्रकारों तथा वकीलों के साक्षात्कार शामिल किए गए हैंजिन्होंने मुख्यतः उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ में माओवादियों और भारत के सरकारी सुरक्षा बलों द्वारा मानवीय हनन के मामलों को या तो खुद देखा है अथवा उनसे परिचित हैं. रिपोर्ट में जुलाई 2011से अप्रैल 2012के बीच के मामलों को शामिल किया गया है.

वैसे तो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर माओवादियों की ओर से सीधे हमले यदा-कदा ही होते हैं. परन्तु माओवादियों द्वारा किये गये दमन के मामले उठाने पर उन्हें भय और खतरे के माहौल में कार्य करना पड़ता है. माओवादियों द्वारा वर्ग शत्रु और सरकारी मुखबिरों के मामलों में बिना हिचकिचाहट के स्वघोषित जन अदालतों में एक छोटा-सा मुकदमा चलाकर, गोली मारकर अथवा गर्दन काटकर मृत्युदंड दे दिया जाता है. यह जन अदालतें अन्तर्राष्ट्रीय मानकों, जैसे न्यायालयों की स्वतन्त्रता, निष्पक्षता, न्यायाधीशों की योग्यता, हर आरोपी को निर्दोष मानकर मुकदमा चलाया जाना तथा बचाव का मौका दिए जाने के निकट भी नहीं ठहरती.

उदाहरण के लिये झारखंड में ग्रामीण रोजगार गारन्टी कार्यक्रम में ग्रामीणों को लाभ दिलाने में मदद देने वाले सामाजिक कार्यकर्ता नियामत अन्सारी की मार्च 2011को हत्या कर दी गई.

माओवादियों ने पहले उनका अपहरण किया तथा बाद में उन्हें यह कहकर मार डाला कि “वे पुलिस प्रशासन के साथ मिलकर जनविरोधी व क्रान्तिविरोधी गतिविधियां चला रहे थे तथा पार्टी को चुनौती दे रहे थे.”

ह्यूमन राइट्स वॉच ने बताया कि उड़ीसा, झारखंड में सरकारी अधिकारियों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं को मनमाने ढंग से गिरफ्तार किया है,  उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है तथा उनके साथ अन्य तरीकों से दुर्व्यवहार किया जा रहा है. इन कार्यकर्ताओं के विरुद्ध राजनीति से प्रेरित आरोप दायर किए जाते हैंजिनमें हत्या, षड्यन्त्र रचना व राजद्रोह जैसे आरोप शामिल हैं. राजद्रोह के मामले 1962के सर्वोच्च न्यायलय के इस आदेश के बावजूद बनाए जा रहे हैं जिसमें कहा गया है कि इस कानून के अन्तर्गत तब तक किसी पर मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिएजब तक कि ऐसे व्यक्ति द्वारा वास्तव में हिंसा न भड़काई गई हो. अधिकांश मामलों को अदालतों द्वारा खारिज कर दिया जाता है, क्योंकि अभियोजन पक्ष के पास लगाए गए आरोपों को सिद्ध करने लायक सबूत ही नहीं होते. परन्तु इस बीच कार्यकर्ता काफी लम्बा समय जेल में गुजार चुके होते हैं, क्योंकि उनकी जमानत की अर्जी को अदालतों द्वारा बार-बार ठुकरा दिया जाता है. पुलिस अक्सर अपने इस तरह के कामों को कार्यकर्ताओं को माओवादी या माओवादी समर्थक कहकर सही सिद्ध करने की कोशिश करती है. उदाहरण के लिये रबीन्द्र कुमार माझी, मधुसूदन बद्रा और कुंडेराम हेब्रम जो कि उड़ीसा की सामाजिक संस्था क्योंझर एकीकृत ग्रामीण विकास एवं प्रशिक्षण संस्थान के कार्यकर्ता है,  जुलाई 2008में इन तीनों को तब तक बुरी तरह पीटा गया जब तक उन्होंने यह मान नहीं लिया कि वे माओवादी हैं. मांझी को पैर बांधकर छत से उल्टा लटका दिया गया तथा उन्हें इतना पीटा गया कि उनकी जांघ की हड्डी टूट गई. हालांकि संयुक्त राष्ट्र के आदिवासी अधिकारों के मामलों में विशेष सूचना दाता जेम्स अनाया ने इन लोगों की सुरक्षा के मामले में भारत सरकार के सामने अपनी चिन्ता जाहिर की तो सरकार ने पुलिस के बयानों को सही मानते हुये उत्तर दिया कि इन तीनों व्यक्तियों ने हिरासत में अपने अपराध स्वीकार कर लिए हैं. हालांकि इन तीनों को बाद में अदालत ने बरी कर दिया जिससे सरकार द्वारा पुलिस के दावे की स्वतन्त्र जांच न करने की गलती की पोल खुल गई. परन्तु तब तक इन तीनों को ढाई साल तक जेल में रहने की तकलीफ उठानी पड़ी.

“यदि कोई कार्यकर्ता किसी आपराधिक कृत्य में लिप्त है तो उसे उचित दंड मिलना चाहिये,” सुश्री गांगुली ने कहा. परन्तु स्थानीय अधिकारियों को ठोस सबूतों और आपराधिक गतिविधियों के आधार पर ही कार्रवाई करनी चाहिए.

अधिकारियों को अपने मन में ऐसा पूर्वाग्रह नहीं बना लेना चाहिये कि सरकार की आलोचना करने वाले सभी लोग माओवादी समर्थक हैं. केन्द्र सरकार को इस मामले में हस्तक्षेप करके लोगों को राजनैतिक तौर पर फंसाने की हरकतों को रोकना चाहिए. छत्तीसगढ़ में बस्तर के आदिवासी क्षेत्र में जमीनी स्तर पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार को सरकारी धमकियों के कारण अपना काम बन्द करना पड़ा. वह स्थानीय नवयुवकों के साथ गांवों में सरकार के खाद्यान्न सुरक्षा, सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यक्रम और अन्य विकास कार्यों को लागू करने का काम कर रहे थे. जब 2005में छत्तीसगढ़ सरकार ने सलवा जुडुम को मदद देनी शुरू की तो हिमांशु कुमार ने सलवा जुडुम द्वारा किये जाने वाले मानवाधिकार हनन के मामले उठाने शुरू किए. वह मीडिया तथा विरोध प्रदर्शन के कारण सबकी नजरों में आ गए. बदले में जिला प्रशासन ने घोषणा कर दी कि संस्था का आश्रम संरक्षित वन भूमि पर बना हुआ है. मई 2009में पुलिस ने आश्रम को तोड़ दिया. कोई दूसरा स्थान न मिलने के कारण तथा कई धमकियों और अपने कई साथियों के गिरफ्तार हो जाने के बाद हिमांशु कुमार को छत्तीसगढ़ छोड़ना पड़ा.

सुश्री गांगुली ने कहा, “भारत सरकार बार-बार यह कहती है कि वह माओवादी समस्या का हल करने के लिये एक साथ दो रास्ते अपनाएगी जिसमें वह एक तरफ लोगों तक विकास का लाभ पहुंचाएगी तथा दूसरी ओर माओवादियों के खिलाफ सुरक्षा अभियान चलाएगी.”

“परन्तु इन विकास योजनाओं को लागू करने वाले कार्यकर्ताओं पर सुरक्षा बलों द्वारा किए जाने वाले हमले रोकने में सरकार पूरी तरह विफल रही है.”

 

अनुभव

पुलिस वाले कहते थे “तुम सब जगह की यात्रा करते हो, माओवादी तुम्हें क्यों नहीं मारते?” लेकिन असल में माओवादी भी मुझसे नाराज हैं. स्थानीय नेता कहते हैं कि मैं लोगों को माओवादियों के खिलाफ भड़का रहा हूं. मैं तो सिर्फ इतना करता हूं कि मैं लोगों को बताता हूं कि उन्हें अपनी जान बचाने के लिये अपनी आवाज उठानी चाहिए. लोग दोनों तरफ की बन्दूकों के बीच में फंस गये हैं, और उन्हें कहना चाहिए कि हम तकलीफ में हैं. मुझसे पुलिस ने कहा “हम तुम पर नजर रखे हुए हैं. तुम बहुत बोलते हो, तुम जेल जाओगे. हम तुम्हें हत्या के केस में फंसा देंगे.”

-छत्तीसगढ़ के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता

“उन्होंने (पुलिस ने) मुझे पीटना शुरू किया... वो मुझसे पूछ रहे थे, ‘तुम एक माओवादी हो न?’

मैंने कहा ‘नहीं.’ उन्होंने कहा अगर तुम मना करोगे तो हम तुम्हें और मारेंगे’. अन्त में मैंने बोल दिया ‘हां’.

-मधुसूदन बद्रा (उड़ीसा) जुलाई-2011

“मेरे साथियों को जेल में डाल दिया गया. कुछ पर हत्या के भी आरोप लगा दिए गए. बदला लेने के लिये हम पर हिंसक हमले बढ़ने लगे. मुझे लगने लगा, अब हमारी रणनीति हमारा ही नुकसान करने लगी है. लोगों की रक्षा करने की बजाए मैने उन्हें और खतरे में डाल दिया है. मुझे लगा दन्तेवाड़ा में काम जारी रखने से आदिवासियों पर और भी हमले किए जाएँगे. और भी लोगों को जेल में डाल दिया जाएगा. और ये वही लोग होंगे हम जिनकी मदद करने की कोशिश कर रहे हैं. तब मैंने दन्तेवाड़ा छोड़ने का फैसला किया.”

-हिमांशु कुमार (छत्तीसगढ़) अगस्त-2011

 

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