(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा आपराधिक अवमानना के लिए एक प्रमुख वकील को दोषी ठहराने से देश की न्यायपालिका समेत विधि सम्मत आलोचनाओं पर खौफ़नाक असर पड़ सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने 14 अगस्त को, जून माह में दो सोशल मीडिया पोस्ट्स के लिए प्रशांत भूषण को न्यायलय की अवमानना अधिनियम, 1971 के तहत दोषी करार दिया. अदालत ने कहा कि ये पोस्ट “भारत की न्यायपालिका के मूल आधार को अस्थिर करने का प्रभाव” रखते हैं. सज़ा सुनांने के लिए 20 अगस्त की तारीख तय की गई है. प्रशांत भूषण ने 19 अगस्त को अर्जी दाखिल कर पुनर्विचार याचिका दायर होने और इस पर विचार किए जाने तक सजा मुकर्र करने वाली सुनवाई स्थगित करने की मांग की है.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “भारत के सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण को उनके सोशल मीडिया पोस्ट के लिए आपराधिक अवमानना का दोषी करार देकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने के अपने लंबे इतिहास को ठुकरा दिया है. ऐसे समय में जब भारत में शांतिपूर्ण विरोध के लिए जगह तेजी से सिकुड़ रही है, सुप्रीम कोर्ट एक मुक्त समाज में लोकतांत्रिक संस्थाओं की जवाबदेही के महत्व के बारे में बिल्कुल गलत संदेश भेज रहा है.”
63 वर्षीय भूषण ने सरकारी संस्थानों में पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग से जुड़ी अनेक जनहित याचिकाओं में मुख्य भूमिका निभाई है. दशकों से, वह प्रायः सरकार के मुखर आलोचक रहे हैं. हाल ही में, उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार की भेदभावपूर्ण नीतियों और उसके द्वारा अधिकारों के उल्लंघन का भी पूरा विरोध किया.
सुप्रीम कोर्ट ने एक वकील की शिकायत पर कार्रवाई की, और 2009 में भूषण के खिलाफ दायर अदालत की अवमानना के फिर से उठाए गए मामले में भी सुनवाई करेगा.
इस फैसले की पूरे भारत में व्यापक निंदा हुई. तीन हजार से अधिक पूर्व न्यायाधीशों, सेवानिवृत्त नौकरशाहों, पत्रकारों और वकीलों ने एक बयान पर हस्ताक्षर किए, जिसमें फैसले को ऐसी “असंगत कार्रवाई” बताया गया जिसका न्यायपालिका की आलोचना करने वाले लोगों पर “खौफ़नाक असर” पड़ेगा. 1,800 से अधिक वकीलों ने फैसले को चुनौती देने वाले एक बयान पर हस्ताक्षर किए और सुप्रीम कोर्ट से फैसले को तब तक प्रभावी नहीं करने की मांग की जब तक कि महामारी प्रतिबंधों के हटने के बाद खुली अदालत में एक बड़ी पीठ आपराधिक अवमानना मानकों की समीक्षा नहीं कर लेती. विपक्षी नेताओं और अधिकार समूहों ने भी फैसले की आलोचना करते हुए कहा कि अवमानना कानून “औपनिवेशिक विरासत” है जिसमें व्यापक सुधार की जरुरत है.
हाल के वर्षों में, भारत सरकार ने शांतिपूर्ण तरीके से असहमति जताने वालों, पत्रकारों, अधिकार कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों और छात्रों के खिलाफ आतंकवाद-निरोधी, राजद्रोह और आपराधिक मानहानि सहित आपराधिक कानूनों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया है. राजनीतिक रूप से प्रेरित मामलों में बड़ी तादाद में लोगों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार किया गया, मुकदमा चलाया गया और कैद किया गया है. ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भूषण को अवमानना का दोषी करार देने का फैसला भारत की अदालतों को संकेत दे सकता है कि न्यायपालिका की कोई भी आलोचना आपराधिक कार्रवाई के अधीन हो सकती है.
भारत में, न्यायालय की अवमानना अधिनियम के तहत दीवानी और फौजदारी दोनों तरह की अवमानना हो सकती है और इसके लिए छह माह तक कारावास का प्रावधान है. आपराधिक अवमानना को मोटे तौर पर ऐसे कृत्य के रूप में परिभाषित किया जाता है कि जो किसी भी अन्य प्रकार से “किसी अदालत के प्राधिकार को आघात पहुंचाता हो या आघात पहुंचाने के लिए प्रवृत होता हो, या उसका स्तर कम करता हो या स्तर कम करने के लिए प्रवृत होता हो; या किसी न्यायिक प्रक्रिया के दौरान पूर्वाग्रह रखता हो या हस्तक्षेप करता हो या हस्तक्षेप करने के लिए अभिमुख होता हो; या न्यायिक प्रशासन में हस्तक्षेप करता हो या हस्तक्षेप करने के लिए अभिमुख होता हो, या बाधा डालता हो या बाधा डालने के लिए प्रवृत होता हो.”
उपनिवेश कालीन कानून को अवमानना तय करने के लिए इस प्रमाण की आवश्यकता नहीं है कि क्या किसी बयान से न्यायिक प्रशासन में वास्तविक हस्तक्षेप हुआ है या जनता के विश्वास को कमजोर किया गया है. यूनाइटेड किंगडम में 2013 में यूके लॉ कमीशन द्वारा न्यायलय को “आघात पहुंचाने” के अपराध संबंधी प्रावधान को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन बताए जाने के बाद समाप्त कर दिया गया.
नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय समझौता (आईसीसीपीआर), जिसका भारत भी एक अंग है, “सार्वजनिक व्यवस्था” बनाए रखने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है, लेकिन यह अनुमति केवल कानून द्वारा और विधि सम्मत उद्देश्य के लिए दी जाती है. सदस्य देशों द्वारा आईसीसीपीआर के अनुपालन की निगरानी करने वाली संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति ने कहा है कि अदालती प्रक्रिया की अवमानना और कोई भी दंडात्मक आदेश “अनिवार्य रूप से सुव्यवस्थित कार्यवाही बरक़रार रखने के लिए अदालत के अधिकार के इस्तेमाल में यथोचित रूप से दर्शाया जाना चाहिए.”
बैंगलोर न्यायिक व्यवहार सिद्धांत, 2002, को लागू करने के दिशानिर्देश, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बारे में संयुक्त राष्ट्र के मूल सिद्धांतों के पूरक हैं, में कहा गया है कि “चूंकि न्यायिक स्वतंत्रता किसी न्यायाधीश को सार्वजनिक जवाबदेही से मुक्त नहीं करती है, और न्यायिक कार्रवाई की विधि सम्मत सार्वजनिक आलोचना कानून के अधीन जवाबदेही सुनिश्चित करने का माध्यम है, न्यायाधीश को आम तौर पर अदालतों की ऐसी आलोचना को प्रतिबंधित करने के लिए आपराधिक कानून और अवमानना की कार्यवाही के इस्तेमाल से बचना चाहिए.”
भारतीय संसद को न्यायालय की अवमानना अधिनियम को अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के अनुरूप बनाने के लिए इस कानून में संशोधन करना चाहिए.
गांगुली ने कहा, “सभी मशहूर शख्सियतों की तरह, न्यायाधीश भी विधि सम्मत आलोचना के अधीन हैं, लेकिन अगर वे इसे अनुचित मानते हैं, तो भी इसे न्यायपालिका को कमजोर करने का प्रयास नहीं माना जाना चाहिए. अंततः, न्यायपालिका कड़ी परीक्षा से मजबूत होती है, और न्यायाधीशों को आलोचना करने वालों को चुप कराने की किसी भी कोशिश के प्रतिवाद की अगुवाई करनी चाहिए.”