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भारत: किसानों के विरोध प्रदर्शन को कवर कर रहे पत्रकारों पर मुकदमा

मामले वापस ले, मीडिया की आज़ादी की रक्षा करे

दिल्ली-उत्तर प्रदेश सीमा पर गाजीपुर में तीन नए कृषि कानूनों का विरोध करते किसान, 30 जनवरी, 2021. © 2021 प्रदीप गौड़/सोपा इमेजेज/सिपा यूएसए (सिपा वाया एपी इमेजेज)

(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत में किसान विरोध प्रदर्शनों और 26 जनवरी, 2021 को दिल्ली में हुई हिंसा की रिपोर्टिंग करने वाले आठ पत्रकारों पर बेबुनियाद आपराधिक आरोप लगाए गए हैं. भारत सरकार को चाहिए कि राजद्रोह, सांप्रदायिक वैमनस्य बढ़ाने और राष्ट्रीय अखंडता के प्रति से पूर्वाग्रह भरी बयानबाज़ी करने सहित अन्य आरोपों के तहत दर्ज मामलों को वापस ले.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “विरोध प्रदर्शनों के जवाब में भारतीय सरकारी तंत्र ने अपना समूचा जोर शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को बदनाम करने, सरकार के आलोचकों को हैरान-परेशान करने और इन प्रदर्शनों की रिपोर्टिंग करने वालों पर मुकदमा दर्ज करने में लगा दिया है. सरकार को चाहिए कि इसके बजाय 26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा की पारदर्शी और निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करे.”

नवंबर 2020 से दिल्ली की सीमा पर हजारों-हजार किसान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा सितंबर में पारित तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं. ये विरोध प्रदर्शन भारत के गणतंत्र दिवस 26 जनवरी तक शांतिपूर्ण थे, जिस दिन प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली में प्रवेश करने के लिए पुलिस बैरिकेड्स तोड़ दिए और पुलिस से उनकी झड़प हुई. प्रदर्शनकारियों के एक समूह ने ऐतिहासिक लाल किला में जबरन दाखिल होकर राष्ट्रीय ध्वज के सामानांतर सिख धार्मिक ध्वज फहराया. बहुत से किसान सिख हैं. इस हिंसा में 26 वर्षीय एक प्रदर्शनकारी नवरीत सिंह हुंदल की मौत हो गई. दिल्ली पुलिस ने कहा कि लगभग 400 पुलिस अधिकारी घायल हुए.

भाजपा शासित उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और हरियाणा राज्यों की पुलिस ने छह वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों - राजदीप सरदेसाई, मृणाल पांडे, ज़फ़र आगा, परेश नाथ, अनंत नाथ, विनोद के. जोस और कांग्रेस पार्टी के नेता शशि थरूर के खिलाफ कथित रूप से प्रदर्शनकारी की मौत के बारे में “गलत खबरें प्रसारित करने” के लिए राजद्रोह और सांप्रदायिक विद्वेष को बढ़ावा देने के मामले दर्ज किए हैं. दिल्ली पुलिस, जो भाजपा के गृह मंत्री अमित शाह को रिपोर्ट करती है, ने भी उन लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया है.

मृतक प्रदर्शनकारी के परिवार के दावों पर आधारित एक खबर ट्वीट करने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस ने 31 जनवरी को द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वर्दराजन के खिलाफ समुदायों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा देने और राष्ट्रीय अखंडता के प्रति पूर्वाग्रह भरी बयानबाज़ी करने का मामला दर्ज किया. मृतक के परिवार का कहना है कि मौत गोली लगने से हुई, जबकि पुलिस के अनुसार ट्रैक्टर पलटने से उनकी मौत हुई.

30 जनवरी को, दिल्ली पुलिस ने पुलिस के साथ “दुर्व्यवहार” का आरोप लगाते हुए विरोध प्रदर्शनों की रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकार धर्मेंद्र सिंह और मनदीप पुनिया को भी हिरासत में ले लिया. पुनिया उस भीड़ के बारे में पड़ताल कर रहे थे जिसने 29 जनवरी को दिल्ली और हरियाणा के बीच सिंघु बॉर्डर पर प्रदर्शन कर रहे किसानों पर पत्थर फेंके थे और उनके तम्बुओं में तोड़फोड़ की थी. पुलिस ने सिंह को अगले दिन रिहा कर दिया लेकिन स्वतंत्र पत्रकार पुनिया को पुलिस अधिकारी को कथित रूप से बाधित करने और उनपर हमला करने के लिए 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया. हालांकि हमलावर भीड़ में शामिल लोगों ने कहा कि वे स्थानीय निवासी हैं, लेकिन खबरों के मुताबिक वे एक हिंदू राष्ट्रवादी समूह से जुड़े भाजपा समर्थक थे.

पत्रकार संगठनों और विपक्षी राजनीतिक दलों ने इस कठोर कार्रवाई की व्यापक निंदा की है. एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने कहा कि पुलिस द्वारा दर्ज मामले “मीडिया को डराने, परेशान करने, उस पर धौंस जमाने, और उसकी आवाज़ दबाने की कोशिश हैं.” इसने मामलों को तुरंत वापस लेने की मांग की और कहा कि मीडिया को “किसी डर के बिना आज़ादी के साथ काम करने की अनुमति दी जानी चाहिए.” प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, प्रेस एसोसिएशन, इंडियन विमेंस प्रेस कॉर्प्स, दिल्ली यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स और इंडियन जर्नलिस्ट्स यूनियन ने भी मामले को वापस लेने की मांग की और असहमति को दबाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले औपनिवेशिक काल के राजद्रोह कानून को निरस्त करने पर जोर दिया.

26 जनवरी की हिंसा के बाद, केंद्र सरकार ने “सार्वजनिक सुरक्षा बनाए रखने” के लिए दिल्ली की सीमा से लगे कई विरोध प्रदर्शन स्थलों पर मोबाइल इंटरनेट सेवाओं को बंद कर दिया. हरियाणा की राज्य सरकार ने भी राज्य के अधिकांश हिस्से में 1 फरवरी तक मोबाइल इंटरनेट सेवाएं निलंबित कर दीं. इंटरनेट अधिकार समूहों ने इन प्रतिबंधों की निंदा करते हुए कहा कि सरकार उनका इस्तेमाल “शांतिपूर्ण सभा से संबंधित सूचनाओं के मुक्त प्रवाह और विरोध प्रदर्शन के मौलिक अधिकार को दबाने के लिए कर रही है.”

अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत, यह सुनिश्चित करना भारत का दायित्व है कि इंटरनेट और संचार के अन्य रूपों पर प्रतिबंध कानून सम्मत हों और यह किसी विशिष्ट खतरे के प्रति आवश्यक और यथोचित कार्रवाई हों. ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि अधिकारियों को सूचना प्रवाह रोकने या स्वतंत्र रूप से इकट्ठा होने और राजनीतिक विचारों को व्यक्त करने की लोगों की क्षमता को नुकसान पहुंचाने के लिए चौतरफा और अंधाधुंध प्रतिबंधों का उपयोग नहीं करना चाहिए.

दिल्ली पुलिस ने 44 आपराधिक मामले दर्ज किए हैं और हिंसा के मामले में 122 लोगों को गिरफ्तार किया है. पुलिस ने भड़काऊ भाषण देने और हिंसा में शामिल होने का आरोप लगाते हुए किसान संगठनों के कम-से-कम 37 प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं के खिलाफ दंगा भड़काने, हत्या के प्रयास और आपराधिक साजिश के मामले दर्ज किए हैं. इनमें प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर और योगेंद्र यादव, भारतीय किसान यूनियन की हरियाणा इकाई के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढूनी और भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत शामिल हैं. आपराधिक मामलों में आरोपित अधिकांश किसान प्रतिनिधि पिछले कई हफ्तों से कृषि कानूनों पर भाजपा सरकार के साथ बातचीत में शामिल रहे थे. इन किसान संगठनों ने हिंसा से खुद को अलग कर लिया है.

हिंसा से पहले भी, जनवरी में राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने किसान नेताओं, सिख कार्यकर्ताओं और पत्रकारों से इन आरोपों के आधार पर पूछताछ की थी कि अलगाव की वकालत करने वाला एक समूह – सिख्स फॉर जस्टिस – विरोध प्रदर्शनों को मदद पहुंचा रहा है. कई हफ्तों से, भाजपा के वरिष्ठ नेता, सोशल मीडिया पर उनके समर्थक और सरकार समर्थक मीडिया प्रदर्शनकारी किसानों को बदनाम करने की कोशिश करते रहे हैं. 1970 और 80 के दशक के पंजाब के सिख अलगाववादी आंदोलन का जिक्र करते हुए वे दावा करते रहे हैं कि प्रदर्शनकारी खालिस्तान समर्थक हैं. दिल्ली पुलिस ने साजिश का आरोप लगाते हुए प्रमुख आतंक-निरोधी कानून, गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम और राजद्रोह कानून के तहत भी एक मामला दर्ज किया है.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि किसान प्रदर्शनों के प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई ने इन चिंताओं को गहरा किया है कि सरकारी तंत्र उन्हें कठोर आतंकवाद-निरोधी कानून, राजद्रोह और अन्य कानूनों के तहत राजनीति से प्रेरित मामलों में निशाना बना सकते  हैं, जैसा कि उसने हाल के वर्षों में भेदभावपूर्ण नागरिकता नीतियों का विरोध करने या दलित और आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए आवाज़ बुलंद करने वाले शांतिप्रिय कार्यकर्ताओं, वकीलों, छात्र नेताओं और शिक्षाविदों के खिलाफ किया है.

गांगुली ने कहा, “भारत सरकार को राजनीतिक रूप से प्रेरित मामलों में पहले से ही जेल में बंद कार्यकर्ताओं या अन्य लोगों को रिहा करना चाहिए न कि ऐसे बंदियों की सूची और लंबी करनी चाहिए. सरकार को हिंसा के असल जिम्मेदार लोगों को सामने लाने के लिए जांच करनी चाहिए, न कि मुखर आलोचकों को चुप कराने और विरोध प्रदर्शन को ख़त्म करने के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहिए.”

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