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यूरोपीय संघ: भारत के साथ शिखर बैठक में अधिकारों को प्राथमिकता दे

आवश्यक चिकित्सा सामग्री मुहैया करे; अधिकार रक्षकों को रिहा करने, उत्पीड़न रोकने हेतु भारत पर दबाव डाले

कोरोनोवायरस बीमारी के प्रसार के बीच दिल्ली स्थित एक गुरुद्वारे में ऑक्सीजन सपोर्ट प्राप्त करते सांस लेने की समस्या से पीड़ित लोग, भारत. © 2021 इदरीस मोहम्मद/स्पुतनिक वाया एपी

(ब्रसेल्स) - आठ संगठनों ने आज कहा कि यूरोपीय नेताओं को चाहिए कि अपने भारतीय समकक्षों के साथ 8 मई, 2021 की शिखर बैठक में भारत में स्वास्थ्य के अधिकार समेत मानवाधिकारों की बिगड़ती स्थिति को प्राथमिकता दें.

देशव्यापी असर वाले विनाशकारी कोविड-19 संकट के दौरान, यूरोप को चिकित्सा आपूर्ति की भारी किल्लत दूर करने और टीकों तक पहुंच सुनिश्चित करने में भारत की मदद करने पर जोर देना चाहिए. साथ ही, यूरोपीय नेताओं को भारत सरकार पर दबाव डालना चाहिए कि वह अपनी उत्पीड़नकारी और भेदभावपूर्ण नीतियां बदले और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा शांतिपूर्ण तरीके से सभा करने के अपने अधिकारों के शांतिपूर्ण इस्तेमाल के लिए जेल भेजे गए सभी मानवाधिकार रक्षकों एवं अन्य आलोचकों को तुरंत रिहा करे.

ये संगठन हैं: एमनेस्टी इंटरनेशनल, क्रिश्चियन सॉलिडैरिटी वर्ल्डवाइड (सीएसडब्लू), फ्रंट लाइन डिफेंडर्स (एफएलडी), ह्यूमन राइट्स वॉच, इंटरनेशनल कमीशन ऑफ़ ज्यूरिस्ट्स (आईसीजे), इंटरनेशनल दलित सॉलिडैरिटी नेटवर्क (आईडीएसएन), इंटरनेशनल फेडरेशन फॉर ह्यूमन राइट्स (एफआईडीएच) और वर्ल्ड आर्गेनाईजेशन अगेंस्ट टार्चर (ओएमसीटी).

दुनिया में कोविड-19 के मामले सबसे तेजी से भारत में बढ़ रहे हैं और यह जांच क्षमता, दवा, एम्बुलेंस सेवा, अस्पतालों में बेड, ऑक्सीजन सपोर्ट और टीकों जैसी स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी किल्लत का सामना कर रहा है. यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देशों को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में प्रस्तुत भारत और दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव पर अपने विरोध पर पुनर्विचार करना चाहिए और उसे वापस ले लेना चाहिए जिसमें ट्रिप्स समझौते के तहत कुछ बौद्धिक संपदा नियमों में अस्थायी रूप से छूट की मांग की गई है, जिससे कि दुनिया भर में व्यापक टीकाकरण होने तक वैश्विक स्तर पर वैक्सीन और संबंधित उत्पादों के उत्पादन में वृद्धि का रास्ता साफ किया जा सके.

कोविड-19 संकट ने भारत में मानवाधिकार सम्बन्धी गहराती चिंताओं को भी उजागर किया है. महामारी से निपटने के लिए चौतरफा आलोचनाओं से घिरी भारत सरकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने की कोशिश की है, जिसमें सोशल मीडिया पर मौजूद सामग्री हटाने का आदेश और मदद की गुहारों को आपराधिक करार देना शामिल है. सरकार ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय की उस मांग को अनसुना कर दिया है जिसमें देशों से “राजनीतिक कैदी और आलोचना या असहमति जताने के लिए हिरासत में लिए गए लोगों समेत पर्याप्त कानूनी आधार के बिना हिरासत में लिए गए हर व्यक्ति की रिहाई” की बात की गई थी ताकि जेलों और डिटेंशन सेंटर्स जैसी बंद जगहों सहित हर जगह पर बढ़ते संक्रमण को रोका जा सके.

इसके बजाय, हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली सरकार ने मानवाधिकार रक्षकों, पत्रकारों, अमनपसंद प्रदर्शनकारियों और अन्य आलोचकों को राजद्रोह और आतंकवाद-निरोधी कठोर कानूनों के तहत लगातार हैरान-परेशान किया है, उन्हें डराया-धमकाया है और मनमाने ढंग से गिरफ्तार किया है.

सरकारी तंत्र ने दिल्ली में फ़रवरी 2020 में हुई सांप्रदायिक हिंसा और साथ ही जनवरी 2018 में महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में हुई जातीय हिंसा के आरोप में बहुतेरे मानवाधिकार रक्षकों, छात्र कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, विपक्षी नेताओं और आलोचकों को जेल में डाल दिया है. तथ्य बताते हैं कि दोनों मामलों में भाजपा समर्थक हिंसा में संलिप्त थे. समूहों ने कहा कि इन मामलों में पुलिस जांच पक्षपातपूर्ण थी और इसका उद्देश्य असहमति रखने वालों को चुप कराना और सरकारी नीतियों के खिलाफ भविष्य के विरोध को रोकने के लिए खौफ पैदा करना था.

सरकार ने नागरिक समाज का दमन करने के लिए विदेशी सहायता कानूनों और अन्य नियमनों का इस्तेमाल किया है. विदेशी सहायता विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) में हालिया संशोधनों के जरिए भारी-भरकम सरकारी चौकसी, अतिरिक्त नियमनों और प्रमाणन प्रक्रियाओं एवं परिचालन संबंधी आवश्यकताओं को जोड़ा गया है, जो नागरिक समाज समूहों पर प्रतिकूल असर डालते हैं और विदेशी सहायता तक छोटे गैर सरकारी संगठनों की पहुंच को बुरी तरह सीमित करते हैं. सितंबर 2020 में, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया अपने मानवाधिकार से जुड़े कार्यों के लिए भारत सरकार द्वारा बदले की कार्रवाई के तौर पर बैंक खातों से लेन-देन पर रोक लगाए जाने के बाद देश में अपने क्रियाकलाप स्थगित करने पर मजबूर हुआ. कई अन्य स्थानीय अधिकार समूह अपने क्रियाकलाप जारी रखने के लिए जूझ रहे हैं.

भारत सरकार ने अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभावपूर्ण कानून और नीतियां भी लागू की हैं. मुस्लिम और दलितों के खिलाफ़ बड़े पैमाने पर हमले जारी हैं, जबकि सरकारी तंत्र अल्पसंख्यक समुदायों को बदनाम करने वाले भाजपा नेताओं और हिंसा में मशगूल भाजपा समर्थकों के खिलाफ कार्रवाई करने में विफल रहता है. अगस्त 2019 में जम्मू और कश्मीर राज्य की संवैधानिक स्थिति रद्द करने और इसे दो केन्द्रशासित प्रदेशों में विभाजित करने के बाद भारत सरकार ने राज्य के मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों पर कठोर और भेदभावपूर्ण प्रतिबंध लगाए हैं.

सरकारी तंत्र ने अक्टूबर में कश्मीर और दिल्ली के अनेक गैर-सरकारी संगठनों और श्रीनगर के एक समाचार पत्र के कार्यालय पर उनकी आवाज़ दबाने के लिए आतंकवाद-निरोधी कानूनों के तहत छापे मारे, जिससे मानवाधिकार रक्षकों में अपनी सुरक्षा को लेकर खौफ़ पैदा हो गया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में मानवाधिकारों की स्थिति में काफी गिरावट के बावजूद, भारत सरकार ने उन अंतरराष्ट्रीय तहकीकात और प्रतिक्रियाओं से प्रभावी रूप से खुद को बचा लिया है जिन्हें स्थिति की गंभीरता को देखते हुए किया जाना चाहिए था. भारत के साथ व्यापार और आर्थिक संबंधों की मजबूती पर जोर देने के कारण, यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देश अपवादस्वरुप केवल मृत्युदंड पर केंद्रित कभी-कभार के बयानों को छोड़कर, भारत में मानवाधिकारों की स्थिति पर सार्वजनिक तौर पर चिंता व्यक्त करने के प्रति उदासीन रहे हैं.

जनवरी 2020 में, अत्यधिक बाहरी दबाव के बीच, यूरोपीय संसद ने भारत के भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून और अन्य उत्पीड़नों पर निंदा प्रस्ताव स्वीकार करना अनिश्चित काल के लिए टाल दिया. प्रस्ताव पेश तो किया गया, लेकिन इस पर मत विभाजन नहीं कराया गया. हालांकि, अप्रैल 2021 में, संसद ने भारत में मानवाधिकार उल्लंघन पर गंभीर चिंता जताते हुए यूरोपीय संघ-भारत संबंधों पर सिफारिशों को स्वीकार किया और यूरोपीय नेताओं से आग्रह किया कि वे आगामी शिखर सम्मेलन का इस्तेमाल इन संदेशों को उच्चतम स्तर पर पहुंचाने के मंच के रूप में करें.

इन मुद्दों पर यूरोपीय संघ की लंबी चुप्पी भारत के कुछ पड़ोसियों सहित कुछ अन्य सरकारों द्वारा गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन के प्रति उसकी बहुत मुखर और कड़ी प्रतिक्रियाओं के बिल्कुल विपरीत है और यूरोपीय संघ के हाल ही में नए रूप में स्वीकृत संकल्प से मेल नहीं खाती है जिसमें कभी भी और कहीं भी मानवाधिकार सम्बन्धी उत्पीड़न पर आवाज़ बुलंद करने और कार्रवाई की बात कही गई है.

यूरोपीय संघ ने हाल ही में भारत के साथ मानवाधिकार पर अपना संवाद फिर से शुरू किया, जो बीते सात साल से निलंबित था. जबकि यूरोपीय संघ ने संवाद आयोजन को नेताओं की बैठक, जहां मजबूत व्यापार संबंधों और अन्य क्षेत्रों में सहयोग पर चर्चा की जाएगी, की एक पूर्व शर्त के रूप में जोर दिया, वहीं गैर-सरकारी संगठनों ने आगाह किया था कि यह संवाद महज खाना-पूर्ति बनकर न रह जाए जिसका मकसद केवल शिखर बैठक के एजेंडा को किसी तरह पूरा करना भर हो. संवाद के बाद जारी अप्रभावी संयुक्त प्रेस विज्ञप्ति ने इन आशंकाओं को कम नहीं किया.

संगठनों ने कहा कि यूरोप के नेताओं को शिखर बैठक में अपनी बात रखनी चाहिए और अपनी चिंताओं को व्यक्त करना चाहिए. संयुक्त बयानों में कथित “मानवाधिकारों और लोकतंत्र के साझा मूल्यों” के खोखले संदर्भों से संतुष्ट होने के बजाय, यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देशों को इन मूल्यों को कायम रखने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए और मानवाधिकार उल्लंघन के लिए भारत सरकार की जिम्मेदारी तय करनी चाहिए.

यूरोपीय नेताओं को भारत सरकार पर दबाव डालना चाहिए कि मनमाने ढंग से हिरासत में लिए गए सभी मानवाधिकार रक्षकों, पत्रकारों और अन्य आलोचकों को तुरंत रिहा करे; असहमति दबाने, अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव करने या गलत तरीके से गैर-सरकारी संगठनों को निशाना बनाने के लिए इस्तेमाल में लाए जाने वाले दमनकारी कानूनों को निरस्त करे या उनमें संशोधन करे; अभिव्यक्ति की आज़ादी और सभा करने की स्वतंत्रता की रक्षा करे; और जम्मू और कश्मीर समेत अन्य क्षेत्रों में मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करे.

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